काकोरी ट्रेन एक्शन: क्रांति की चिंगारी
9 अगस्त 1925 की रात, घने अंधेरे को चीरते हुए, यात्रियों से खचाखच भरी नंबर 8 डाउन ट्रेन शाहजहांपुर से लखनऊ की ओर तेजी से बढ़ रही थी। सब कुछ सामान्य था: ट्रेन अपनी रफ्तार से चल रही थी, गार्ड्स अपनी जगह तैनात थे, कुछ यात्री नींद में थे, तो कुछ खिड़कियों से आ रही ठंडी हवा का आनंद ले रहे थे। किसी को जरा भी अंदाजा नहीं था कि यह सफर इतिहास के पन्नों पर हमेशा के लिए दर्ज होने वाला है।
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Kakori train action |
इस ट्रेन में हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचआरए) के दस क्रांतिकारी सवार थे, जिनके नेतृत्व में थे राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी और चंद्रशेखर आजाद। इन नौजवानों ने सिर पर कफन बांधकर एक ऐसा संकल्प लिया था, जो अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिला देने वाला था। उनका मिशन था ट्रेन में मौजूद सरकारी खजाने को लूटना, जिसमें अंग्रेजों ने भारतीयों से जबरदस्ती टैक्स के रूप में वसूला हुआ पैसा रखा था। यह कोई साधारण डकैती नहीं, बल्कि आजादी की जंग के लिए धन जुटाने और ब्रिटिश शासन को चुनौती देने का साहसी कदम था।
पृष्ठभूमि: गुलामी का दौर
1920 के दशक में भारत ब्रिटिश अत्याचारों के साये में था। 1919 में लागू रौलट एक्ट जैसे काले कानून ने किसी भी भारतीय को बिना सबूत गिरफ्तार करने और उनके घरों की तलाशी लेने की छूट दे दी थी। 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग में निहत्थे लोगों पर गोलियां बरसाकर ब्रिटिशों ने अपनी क्रूरता की मिसाल कायम की, जिसमें हजार से ज्यादा लोग मारे गए। किसानों का शोषण, भारी टैक्स और गुलामी की जिंदगी ने हिंदुस्तानियों के दिलों में आग भर दी थी।
महात्मा गांधी ने 1920 में असहयोग आंदोलन शुरू किया, जिसका मकसद था अंग्रेजों को आर्थिक और सामाजिक सहयोग बंद करना। इस आंदोलन ने पूरे देश को एकजुट किया, लेकिन 1922 में चौरी-चौरा की हिंसक घटना के बाद गांधी जी ने इसे रोक दिया। इस फैसले से राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, सचिंद्रनाथ सान्याल और चंद्रशेखर आजाद जैसे युवा क्रांतिकारियों का अहिंसा से विश्वास उठ गया। उन्हें लगता था कि आजादी मांगने से नहीं, छीनने से मिलेगी।
इसी सोच ने 1924 में हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचआरए) को जन्म दिया। राम प्रसाद बिस्मिल, एक कवि और क्रांतिकारी, इसके प्रमुख नेता थे। उनके साथ अशफाक उल्ला खान, जिनकी शायरी में क्रांति की आग थी, और चंद्रशेखर आजाद जैसे जोशीले नौजवान शामिल थे। एचआरए ने 1 जनवरी 1925 को अपना मेनिफेस्टो ‘द रेवोल्यूशनरी’ प्रकाशित किया, जिसमें अहिंसा को कमजोर बताते हुए नौजवानों से हथियार उठाने की अपील की गई।
काकोरी की योजना
एचआरए को हथियार, प्रशिक्षण और गुप्त गतिविधियों के लिए धन की जरूरत थी। शुरुआत में उन्होंने अमीरों को लूटने की कोशिश की, लेकिन इससे न तो पर्याप्त पैसा मिला, न ही संगठन की छवि बनी। एक दिन ट्रेन से लखनऊ जाते वक्त राम प्रसाद बिस्मिल ने देखा कि स्टेशन मास्टर ने गार्ड को एक थैली दी, जिसे गार्ड ने लोहे के संदूक में रखा। इस संदूक में टैक्स का पैसा था, जो अंग्रेज भारतीयों से वसूलते थे। बिस्मिल ने तय किया कि सरकारी खजाने को लूटकर न केवल धन मिलेगा, बल्कि अंग्रेजों के दिल में दहशत भी पैदा होगी।
उन्होंने शाहजहांपुर में अपने भरोसेमंद साथियों के साथ मीटिंग की और योजना बनाई। नंबर 8 डाउन ट्रेन, जो शाहजहांपुर से लखनऊ जाती थी, को काकोरी स्टेशन के पास रोककर संदूक लूटने का फैसला हुआ। योजना थी कि क्रांतिकारी अलग-अलग डिब्बों में चढ़ेंगे, चैन खींचकर ट्रेन रोकेंगे और गार्ड केबिन से संदूक कब्जे में लेंगे। अशफाक उल्ला खान ने जोर देकर कहा कि किसी भी हिंदुस्तानी की जान नहीं जानी चाहिए।
9 अगस्त 1925: एक्शन का दिन
9 अगस्त की शाम, दस क्रांतिकारी—राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी, चंद्रशेखर आजाद, मुकुंदी लाल, सचिंद्र बक्शी, मुरारी लाल गुप्ता, केशव चक्रवर्ती, मनमथनाथ गुप्त और बनवारी लाल—शाहजहांपुर स्टेशन पर पहुंचे। सभी ने साधारण कपड़े पहने थे और चार के पास छिपी हुई बंदूकें थीं। ट्रेन में चढ़कर उन्होंने चैन के पास वाली सीटें लीं।
जैसे ही ट्रेन काकोरी स्टेशन के पास पहुंची, राजेंद्र लाहिड़ी ने इमरजेंसी चैन खींची। ट्रेन रुकते ही बिस्मिल और उनके साथियों ने ड्राइवर और गार्ड को काबू में कर लिया। बिस्मिल ने यात्रियों को आश्वस्त किया कि उनकी जान और सामान सुरक्षित है, वे सिर्फ सरकारी खजाना लूटने आए हैं। अशफाक ने संदूक का ताला तोड़ने की कोशिश की, लेकिन पत्थर से नहीं टूटा। फिर हथौड़े से कोशिश की गई, पर समय बीतता जा रहा था।
इसी बीच, एक दुखद घटना हुई। अहमद अली नाम का यात्री अपनी पत्नी का हाल जानने महिला डिब्बे की ओर जा रहा था। मनमथनाथ गुप्त, जो 18 साल से कम उम्र के थे, ने उसे खतरा समझकर गोली चला दी। अहमद अली की मौत हो गई। यह घटना क्रांतिकारियों के लिए झटका थी, क्योंकि वे किसी हिंदुस्तानी को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहते थे। बिस्मिल ने मनमथनाथ को चुप कराया और मिशन पर ध्यान केंद्रित किया।
आखिरकार, बिस्मिल ने खुद हथौड़ा लेकर संदूक का ताला तोड़ा। उसमें करीब 8000 रुपये थे, जो आज के हिसाब से लाखों में होंगे। पैसे को चादरों में लपेटकर क्रांतिकारी गोमती नदी के किनारे होते हुए लखनऊ के चौक पहुंचे। आधे घंटे में ऑपरेशन पूरा हो चुका था।
परिणाम: ब्रिटिशों का गुस्सा
काकोरी की घटना ने पूरे देश में तहलका मचा दिया। अखबारों की सुर्खियों में ‘काकोरी में डकैती’ छा गया। लोगों को यह बात पसंद आई कि क्रांतिकारियों ने सिर्फ सरकारी खजाना लूटा, किसी यात्री का सामान नहीं छुआ। यह लूट ब्रिटिश ताकत पर प्रतीकात्मक हमला था, जो यह ऐलान करता था कि भारतीय अब गुलामी बर्दाश्त नहीं करेंगे।
ब्रिटिश सरकार ने इसे चुनौती माना। उन्होंने केस को रेलवे पुलिस से सीआईडी को सौंप दिया। अफरातफरी में क्रांतिकारियों से एक चादर छूट गई थी, जिस पर शाहजहांपुर के धोबी का निशान था। इस सुराग से पुलिस को एचआरए पर शक हुआ। बड़े पैमाने पर छापेमारी शुरू हुई, और 5000 रुपये के इनाम के पर्चे शहरों में चिपकाए गए।
कुछ महीनों बाद, चंद्रशेखर आजाद को छोड़कर सभी क्रांतिकारी पकड़े गए। अशफाक को उनके बचपन के दोस्त ने धोखा देकर पुलिस को सूचना दी। बनवारी लाल ने पुलिस के सामने सारी जानकारी खोल दी, जिससे केस और मजबूत हुआ।
मुकदमा और सजा
काकोरी केस की सुनवाई डेढ़ साल तक चली। राम प्रसाद बिस्मिल ने कोर्ट में अपनी पैरवी खुद की। जब जज ने तंज कसते हुए पूछा कि उन्होंने कानून की डिग्री कहां से ली, तो बिस्मिल ने जवाब दिया, “महोदय, एक राजा बनाने वाला डिग्री की जरूरत नहीं रखता।” उनकी बहादुरी ने कोर्ट को हिला दिया, लेकिन सरकार ने उन्हें वकील थोप दिया।
जुलाई 1927 में फैसला आया। 40 में से 15 लोग रिहा हुए, लेकिन राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र लाहिड़ी और रोशन सिंह को फांसी की सजा सुनाई गई। बाकियों को काला पानी या लंबी जेल की सजा मिली। जनता सड़कों पर उतर आई, याचिकाएं दायर की गईं, लेकिन वायसरॉय ने मृत्युदंड को उम्रकैद में बदलने से इनकार कर दिया।
17 दिसंबर 1927 को राजेंद्र लाहिड़ी को गोंडा जेल में फांसी दी गई। 19 दिसंबर को रोशन सिंह को मलाका जेल, अशफाक को फैजाबाद जेल और राम प्रसाद बिस्मिल को गोरखपुर जेल में फांसी पर लटकाया गया। फांसी से पहले बिस्मिल ने एक शेर पढ़ा:
अब न आलमाले वलवला है, न अरमानों की भीड़,
बस एक मिट जाने की हसरत अब दिले बिस्मिल में है।
विरासत
फांसी से पहले राम प्रसाद बिस्मिल ने जेल में अपनी आत्मकथा लिखी, जो 1929 में छपी, लेकिन अंग्रेजों ने इसे बैन कर दिया। उनकी शहादत ने नौजवानों में क्रांति की आग भड़का दी। एचआरए बिखरा नहीं, बल्कि क्रांतिकारी इससे जुड़ते गए। चंद्रशेखर आजाद ने भगत सिंह के साथ मिलकर 1928 में एचआरए को हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए) में बदला।
27 फरवरी 1931 को, चंद्रशेखर आजाद अल्फ्रेड पार्क में पुलिस से लड़ते हुए शहीद हुए। अपनी आखिरी गोली उन्होंने खुद को मारी, ताकि जिंदा न पकड़े जाएं।
काकोरी ट्रेन एक्शन आजादी की जंग में मील का पत्थर साबित हुआ। यह एक ऐसी चिंगारी थी, जिसने क्रांति को नई दिशा दी। काकोरी में बना शहीद स्मारक आज भी उन वीरों के बलिदान की याद दिलाता है, जिनके खून से 1947 की आजादी की नींव पड़ी।
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