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डेटोल की प्रेरणादायक कहानी || history of Dettol in hindi

 


डेटोल की प्रेरणादायक कहानी: एक एंटीसेप्टिक से आदत बनने तक का सफर



भारत के लगभग हर घर में एक छोटी सी एंटीसेप्टिक बोतल मिल ही जाती है—डेटोल। यह केवल एक एंटीसेप्टिक नहीं, बल्कि अब एक आदत बन चुका है। चाहे वह स्कूल हो, अस्पताल, क्लीनिक या फिर किसी का घर—डेटोल की उपस्थिति हर जगह महसूस की जाती है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि इस एक बोतल के पीछे कितनी लंबी और अद्भुत कहानी छुपी है?

शुरुआत एक आटे की चक्की से

इस कहानी की शुरुआत होती है 1840 में इंग्लैंड के एक छोटे से शहर से, जहां आइजैक रैकेट नाम के एक व्यक्ति ने अपनी किस्मत बदलने की ठानी। उन्होंने एक फ्लोर मिल यानी आटा चक्की शुरू की, लेकिन ये बिजनेस ज्यादा नहीं चला। कई कोशिशों के बावजूद मुनाफा नहीं हो रहा था।



लेकिन आइजैक ने हार नहीं मानी। उन्होंने ध्यान दिया कि लोगों में साफ-सफाई और हाइजीन के प्रति जागरूकता की भारी कमी है। इसी सोच के साथ उन्होंने “Ricketts and Sons” नाम की एक कंपनी बनाई, जिसमें स्टार्च, नील और क्लीनिंग प्रोडक्ट्स बनाए जाने लगे। उनकी गुणवत्ता इतनी उम्दा थी कि 1880 तक इंग्लैंड के हर घर में इन प्रोडक्ट्स की पहचान बन चुकी थी।

1929: जब साइंस ने दिशा बदली

1929 में इस कंपनी से जुड़े एक नए साइंटिस्ट—डॉ. विलियम रेय्नाल्ड्स। उस दौर में चिकित्सा क्षेत्र का ध्यान केवल बीमारियों के इलाज पर था, न कि उनके रोकथाम पर। लेकिन डॉ. रेय्नाल्ड्स ने यह मान्यता दी कि बीमारियाँ बाहर से आने वाले इन्फेक्शन्स से भी होती हैं।

उनकी चिंता का सबसे बड़ा कारण था एक खतरनाक संक्रमण—प्यूपेरल सेप्सिस। यह संक्रमण डिलीवरी के बाद महिलाओं को होता था और हर साल लाखों महिलाओं की मौत का कारण बनता था।

डेटोल का अविष्कार: एक सुरक्षित समाधान की खोज

डॉ. रेय्नाल्ड्स ने एक ऐसा एंटीसेप्टिक बनाने का बीड़ा उठाया, जो कि:

  • प्रभावी हो
  • स्किन के लिए सुरक्षित हो
  • रोज़ाना अस्पतालों में इस्तेमाल हो सके
  • प्यूपेरल सेप्सिस जैसे घातक इन्फेक्शन्स को रोक सके

सैकड़ों एक्सपेरिमेंट्स और महीनों की मेहनत के बाद उन्होंने एक ऐसा फॉर्मूला तैयार किया जिसे “डेटोल” नाम दिया गया। इसका पहला ट्रायल हुआ 1933 में लंदन के क्वीन चार्लोट हॉस्पिटल में। इसके इस्तेमाल से सिर्फ 2 सालों में ही संक्रमण के मामलों में 50% से भी ज्यादा की गिरावट आ गई। मेडिकल दुनिया ने इसे “गेम चेंजर” घोषित कर दिया।

डेटोल का आम लोगों तक सफर


शुरुआत में डेटोल सिर्फ फार्मेसी में डॉक्टर की प्रिस्क्रिप्शन पर मिलता था। लेकिन जब वैज्ञानिक रूप से ये सिद्ध हो गया कि डेटोल प्रभावी और सुरक्षित है, तब इसे आम लोगों के लिए भी उपलब्ध कराया गया।


1930 के दशक में यह कई देशों में पहुँच गया—ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, साउथ अफ्रीका, कनाडा, और फिर भारत।

भारत में डेटोल का संघर्ष और बदलाव

भारत में डेटोल का सफर आसान नहीं था। लोग इसे “अंग्रेजों की दवा” समझते थे और घरेलू नुस्खों पर ज्यादा भरोसा करते थे। ऊपर से यह इंपोर्टेड प्रोडक्ट था, इसलिए इसकी कीमत भी ज्यादा थी। उस समय भारत में हाइजीन के प्रति जागरूकता बेहद कम थी।

लेकिन रैकेट कंपनी ने हार नहीं मानी। उन्होंने डॉक्टरों और अस्पतालों को फ्री सैंपल देकर इसका प्रचार शुरू किया।

वर्ल्ड वॉर 2 और डेटोल का असली रोल

1939 में जब द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हुआ, डेटोल की अहमियत और भी बढ़ गई। युद्ध में घायल सैनिकों की जान इंफेक्शन से बचाना सबसे बड़ी चुनौती थी और यही चुनौती डेटोल ने बखूबी निभाई।

ब्रिटिश गवर्नमेंट ने डेटोल को Essential Supply घोषित कर दिया। अब यह हर सैनिक की मेडिकल किट और हर वॉर हॉस्पिटल का हिस्सा बन चुका था।

बॉम्बिंग के खतरे और बड़ी योजना

वॉर के दौरान डेटोल की डिमांड बढ़ रही थी, लेकिन फैक्ट्री पर बॉम्बिंग का खतरा मंडरा रहा था। इसलिए रैकेट कंपनी ने अपनी पूरी मैन्युफैक्चरिंग यूनिट को सेफ ज़ोन में शिफ्ट कर दिया ताकि उत्पादन में कोई रुकावट ना आए।

भारत में स्वीकार्यता और ट्रस्ट का निर्माण

जैसे-जैसे समय बीतता गया, भारत में भी डेटोल के प्रति लोगों की सोच बदली। इसका सबसे बड़ा कारण था रैकेट कंपनी की लोकलाइज्ड मार्केटिंग। उन्होंने भारतीय डॉक्टरों, अस्पतालों और नर्सों को सैंपल्स दिए, हाइजीन पर एजुकेशनल कैम्पेन चलाए और लोगों को इसके इस्तेमाल की अहमियत बताई।

आज का डेटोल: सिर्फ एक प्रोडक्ट नहीं, एक आदत

आज डेटोल सिर्फ एक एंटीसेप्टिक नहीं, एक विश्वास, एक आदत, और एक जरूरत बन चुका है। इसकी मौजूदगी हर घर, स्कूल और हॉस्पिटल में है। यह कहानी हमें सिखाती है कि कैसे दृढ़ संकल्प, साइंटिफिक सोच और मानव सेवा के समर्पण से एक साधारण प्रोडक्ट, एक ग्लोबल ब्रांड बन सकता है।


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FAQs:


Q1. डेटोल की खोज कब और किसने की थी?

Ans: डेटोल को 1929 में डॉ. विलियम रेय्नाल्ड्स ने रैकेट कंपनी में तैयार किया था।


Q2. डेटोल भारत में कब आया?

Ans: डेटोल 1936 में भारत में पहुंचा।


Q3. क्या डेटोल आज भी सुरक्षित है?

Ans: हां, डेटोल वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित और स्किन सेफ एंटीसेप्टिक है।


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